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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई मुंशी प्रेम चंद
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हरिधन अपने घर पहुँचा तो दोनो भाई, 'भैया आये! भैया आये!' कहकर भीतर दौड़े, और माँ को खबर दी।
उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शांत महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी माँ की गोद में बैठा हुआ हैं। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहाँ पहले अभिमान था, आग्रह था, हेकड़ी थी, वहाँ अब निराशा थी, पराजय और याचना थी। बीमारी को ज़ोर कम हो चला था, अब मामूली दवा भी असर कर सकती थी। क़िले की दीवारें छिद चुकी थी। अब उसमें घुस जाना असाध्य न था। वही घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। हरिधन का निरवलम्ब मन यह आश्रय पाकर मानो तृप्त हो गया।
शाम को विमाता ने कहा - बेटा, तुम घर आ गये, हमारे धन्य भाग। अब इन बच्चों को पालो। माँ का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हापी अम्माँ से मेरी बहन का नाता हैं। उस नाते से तुम मेरे लड़के होते हो।
हरिधन ने मातृ-विह्वल आँखों से विमाता के रूप मे अपनी माता के दर्शन किये। घर के एक-एक कोने से मातृ-स्मृतियों की छटा चाँदनी की भाँति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुँखमंड़ल भी उसी छटा से रंजित था।
दूसरे दिन हरिधन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आँखों में गर्व। वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था, किसी के द्वार का भिक्षुक नही, घर का रक्षक था।
एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर लिया। माँ से बोला- तुमने सुना काकी! गुमानी ने घर कर लिया।
काकी ने कहा- घर क्या कर लेगी, ठट्ठा है। बिरादरी में ऐसा अंधेर? पंचायत नही, अदालत तो हैं?
हरिधन ने कहा- नही काकी, बहुत अच्छा हुआ। ला, महावीरजी को लड्डू चढ़ा आऊँ। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान् ने मेरी सुन ली। मैं वहाँ से यही ठानकर चला था, अब उसका मुँह न देखूँगा।

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